
भारत-पाकिस्तान संघर्ष के बाद तुर्की के पाकिस्तान के पक्ष में खुलकर बोलने पर AIMIM सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने दो टूक जवाब दिया है। उन्होंने कहा कि तुर्की को अपने रुख़ पर गंभीरता से पुनर्विचार करना चाहिए।
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तुर्की के बयान पर क्या बोले ओवैसी?
मीडिया से बातचीत में ओवैसी ने साफ कहा,
“पाकिस्तान का समर्थन करने के अपने फैसले के बारे में तुर्की को दोबारा सोचना चाहिए।”
उन्होंने आगे जोड़ा,
“हमें तुर्की को लगातार यह याद दिलाना चाहिए कि भारत में 20 करोड़ मुसलमान रहते हैं। पाकिस्तान इस्लामी मुल्क होने का दावा करता है, जबकि भारत की मुस्लिम आबादी उससे कहीं अधिक है।”
“पाकिस्तान का इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं”
ओवैसी ने पाकिस्तान की धार्मिक राजनीति पर तीखा प्रहार करते हुए कहा कि
“पाकिस्तान का इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है। वहां की राजनीति इस्लाम के नाम पर मुसलमानों को ठगने की राजनीति है, जिसका भारत के मुस्लिमों से कोई वास्ता नहीं।”
भारत सरकार की चुप्पी पर क्या बोले?
जब उनसे सरकार की प्रतिक्रिया के बारे में पूछा गया तो उन्होंने उम्मीद जताई,
“मेरे ख्याल से भारत सरकार इस मुद्दे को देख रही होगी।”
भारत में तुर्की के खिलाफ क्यों भड़का आक्रोश?
भारत में तुर्की की पाकिस्तान-समर्थक नीति के खिलाफ कई शिक्षण संस्थानों ने कड़े कदम उठाए हैं:
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JNU ने तुर्की की इनोनू यूनिवर्सिटी के साथ किया गया शैक्षणिक समझौता निलंबित किया।
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जामिया मिल्लिया इस्लामिया ने भी तुर्की की सरकारी मान्यता प्राप्त यूनिवर्सिटीज़ के साथ सहयोग को रोक दिया है।
भारत और तुर्की के संबंधों में तल्ख़ी बढ़ रही है, लेकिन AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की प्रतिक्रिया यह दर्शाती है कि भारत के मुस्लिम पाकिस्तान से अपनी पहचान नहीं जोड़ते। यह बयान उन अंतरराष्ट्रीय शक्तियों को भी स्पष्ट संदेश देता है जो भारत की आंतरिक विविधता को बाहरी चश्मे से देखने की भूल कर बैठते हैं।
ग्रुप एडिटर जीशान हैदर की टिप्पणी:
“तुर्की को इस्लामी दुनिया का ठेकेदार बनने से पहले भारत के संवैधानिक ढांचे और सामाजिक ताने-बाने की समझ होनी चाहिए। भारत में 20 करोड़ मुसलमान न तो पाकिस्तान के एजेंडे से जुड़े हैं, न ही किसी विदेशी हमदर्दी की मोहताजी में जी रहे हैं। तुर्की की पाकिस्तानपरस्ती उसकी कूटनीतिक अपरिपक्वता को उजागर करती है। ओवैसी का यह बयान मुस्लिम समाज के भीतर से उठती उस आवाज़ का प्रतिनिधित्व करता है जो भारत में बराबरी, लोकतंत्र और गरिमा के साथ जीना चाहती है — न कि किसी मजहबी राष्ट्र की दया पर। भारत को किसी ‘इस्लामिक तर्जुमान’ की ज़रूरत नहीं, खासकर तब जब वो खुद अपने अल्पसंख्यकों की आवाज़ कुचल रहा हो।”
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